मंजिल उन्हें ही मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है,
पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है !
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जयपुर जिले के एक छोटे से गांव के साधारण परिवार से निकलकर मुंबई और जयपुर की बड़ी बैंक ब्रांचों तक पहुंचने वाला यह नाम सिर्फ एक रिटायर्ड बैंक अधिकारी का नहीं, बल्कि संघर्ष से सीखने और सेवा से समाज को लौटाने वाली भावना का प्रतीक है - श्याम बिहारी गुप्ता।
यूँ तो कहने को रिटायर हो चुके हैं पर अन्यथा देखें तो श्याम बिहारी जी ने अब समाज सेवा में अपने जीवन को पहले से ज्यादा व्यस्त कर लिया है। उन्होंने न सिर्फ अपने 38 साल के बैंक में मिले हर रोल को अनूठे ढंग से निभाया बल्कि अभी भी टाइम बैंक के माध्यम से सीनियर सिटीजन के साथ आपस में एक दूसरे कि जरुरत के समय खड़े रहने से लेकर अपने और उनके समय को अर्थपूर्ण ढंग से बिताना और बैंक ऑफ़ राजस्थान के रिटायर्ड कर्मचारियों के साथ मिलकर लगातार कुछ न कुछ गतिविधियां करना और अग्रवाल समाज के होने के नाते गर्व करते हुए समाज को अपनी सेवाएं देना, उनके मुस्कुराते हुए सरलता से अपनी कहानी बताने में जीवन के प्रति तसल्ली झलकाता है।
जब होशियारी भी भेदभाव से हार गई…
1960 में खाटू श्याम जी की 'बारस' के दिन, जयपुर ज़िले के एक छोटे से गाँव तिगरिया में जन्मे श्याम बिहारी गुप्ता जी को उनके श्रद्धालु परिवार ने प्रेमपूर्वक नाम दिया - श्याम बिहारी।
पिता स्व श्री मोहनलाल जी अग्रवाल गांव में एक साधारण किराने की दुकान चलाते थे और माता श्रीमती निर्मला देवी जी एक कर्मनिष्ठ गृहिणी थीं। कुल नौ संतानें थीं घर में छह भाई और तीन बहनें जिनमें श्याम बिहारी सबसे बड़े थे। बचपन से ही जिम्मेदारी उनके हिस्से का पहला पाठ बन गई।
शुरुआती शिक्षा गांव के ही एक सरकारी स्कूल से शुरू हुई, जो उनके मकान के ठीक पीछे स्थित था। वहीं से उन्होंने पहली से आठवीं तक की पढ़ाई की। वे पढ़ाई में तेज थे, लेकिन उन्हें हर साल दूसरे या तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ता था। एक दिन उन्होंने गुरुजी से पूछ ही लिया “मैं पढ़ाई में तेज हूँ, फिर
भी पहला स्थान क्यों नहीं आता?” जब गुरुजी से इसका कारण पूछा, तो हंसते हुए बोले “पहले नंबर पर वही आते हैं, जिनके घर से हमें सालभर दूधदही मिलता है।”
यह अनुभव जीवन की पहली सामाजिक सीख बना - होशियारी ही नहीं, हालात भी नंबर तय करते हैं।